जिद्दी जीतू सोसल एक्टीविस्ट
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चंद लाइनो मे अच्छे दिन की
परिभाषा समझाने की कोशिश
करता हूँ:
जब जिन्दा लाश तड़पती हों,
दो गज़ जमीं न मिलती हो,
जाति जानकर लाशों की,
शमशान की गलियाँ खुलती हों,
गो रक्षक, भक्षक बन कर,
हर दिन आतंक मचाते हों,
हो मरी गाय पे राजनीति,
इंसानियत लहू की प्यासी हो,
भगवा आतंकी बन बैठें,
कर खूनी तलवार नचाते हों,
हों गर्भवती दासी उनकी,
कहते खुदको जो सन्यासी हों,
सत्ताधारी नेता जब अपने,
जुमलों पर भी इतराते हों,
जब नौकरशाही पे जबरन,
फरमान निकाले जाते हों,
जहाँ अंधे भक्त दबंग बने,
बद से बदतर सरकारें हों,
कंधे लाश उठाऐं कोसों,
सड़कों पर डिजिटल कारें हों,
वो बात की कीमत क्या जानें,
जो लम्बी फेंका करते हैं,
यही तो हैं वो अच्छे दिन,
जो आप अक्सर पूछा करते हैं।
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